रस का अर्थ आनंद है अर्थात किसी काव्य को पढ़ने, सुनने, या देखने से मिलने वाला आनंद ही रस है। भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ‘रस’ शब्द का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट तत्वों के लिए होता है। संगीत के क्षेत्र में कानो द्वारा प्राप्त आनंद का नाम रस है।अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को हो रस माना गया है- ‘रसौ वै सः’ अर्थात रस ही परमात्मा है।
रस की निष्पत्ति स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से होती है। रस को काव्य की आत्मा माना गया है।
रस के अवयव अथवा रस-निष्पत्ति
स्थायीभाव आश्रय के हृदय में आलम्बन के द्वारा उत्तेजित होकर उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होकर, संचारीभावों से पुष्ट होता हुआ अनुभावों के माध्यम से व्यक्त होता है। जब काव्यगत स्थायीभावों की अनुभूति पाठक को होती तो वही रसानुभूति या रस निष्पत्ति कहलाती है।
रस के अंग
रस के चार अंग होते हैं- 1. स्थायी भाव, 2. विभाव, 3. अनुभाव, 4. संचारी भाव
1. स्थायी भाव
मानव हृदय में वासना-रूप में रहने वाले मनोविकारों को काव्य में स्थायीभाव माना जाता है।ये स्थायीभाव स्थायी रूप से चित्त में स्थित रहते है, इसी कारण इन्हें स्थायीभाव कहते हैं। जैसे-
प्रीति, हँसी, अरू, सोक पुनि, रिस, उछाह भै भित्त।
घिन, बिसमै, थिर भाव ए, आठ बसें सुभचित।।
इन आठ स्थायीभावों के अतिरिक्त एक और भी स्थायी भाव है- निर्वेद। इस प्रकार कुल मिलकर निम्न्लिखित नौ स्थायी भाव हैं, जो रसों में इस प्रकार स्थित है –
No. | रस | स्थायी भाव |
1 | श्रंगार | रति (प्रेम) |
2 | करुण | शोक |
3. | हास्य | हास |
4. | वीर | उत्साह |
5. | रौद्र | क्रोध |
6. | भयानक | भय |
7. | अद्भुत | विस्मय |
8. | वीभत्स | जुगुप्सा (घ्रणा) |
9. | शान्त | निर्वेद |
2. विभाव
स्थायी भावों को जगाने वाले और उद्दीप्त करने वाले कारण को विभाव कहते है अथवा उत्तेजना के मूल कारण को विभाव कहते है। ये दो प्रकार के होते है-
- आलम्बन विभाव – जिस कारण स्थायी भाव जाग्रत हो उसे आलम्बन विभाव कहते है। जैसे जंगल में शेर को देखकर डरने का आलम्बन विभाव ‘सेर’ होगा।
- उद्दीपन विभाव – जाग्रत स्थायी भाव को उद्दीप्त करने वाले कारण उद्दीपक विभाव कहे जाते हैं। जैसे वन में शेर देखकर भयभीत व्यक्ति के सामने ही शेर जोर से दहाड़ तो दहाड़ भय को उद्दीप्त करेगी।
आलम्बन यदि आग है, जो अंगारे के रूप में आग लगता है तो उद्दीपन हवा है जो आग को भड़का देती है। जिस व्यक्ति के हृदय में इसका प्रभाव होता है, उसे आश्रय कहा जाता है।
3. अनुभाव
स्थायीभाव के जाग्रत होने तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय की शारीरिक चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। जैसे जंगल में शेर को देखकर डर के मारे कांपने लगना, भागना आदि। अनुभाव पांच प्रकार होते हैं- 1. कायिक, 2. वाचिक 3. मानसिक, 4. सात्विक 5. आहार्य।
4. संचारी भाव
एक ही स्थायीभाव के बीच-बीच में परिस्थितिवश अनेक भावों का भी संचार होता है। जैसे- शेर को देखकर भयभीत व्यक्ति को ध्यान आता है की कुछ दिन पहले शेर ने एक आदमी को मार दिया था। ऐसे भावों को संचारी भाव कहते हैं। संचारी भाव स्थायी भाव के विकास में सहायक होते है किन्तु प्रतिकूल रूप में हों तो वे बाधक बन जाते हैं। ये तैंतीस मने गए है –
ग्लानि, दैन्य,अरू शंका,श्रम,मन्द और अमर्ष।
स्वप्न, मोह, शांत, चिंता, त्रास, उम्रता, हर्ष।
आवेग अरू निद्रा, स्मृति, जड़ता ब्रीड़ा, धर्म।
अपस्मार, वितर्क, मरण, व्याधि और चापल्य।
अवहित्था, आलस्य पुनि, गर्व, विबोध, विषाद।
औत्युक्त, अरू असूया, निर्वेद अरू उन्माद।
रस के भेद
रस नौ प्रकार के माने गए हैं – 1. श्रंगार रस, 2. वीर, 3. शांत, 4. करुण 5. हास्य 6. रौद्र 7. भयानक 8. वीभत्स एवं अद्भुत। कुछ विद्वान भक्ति एवं वात्सल्य को भी रस मानते हैं।
1. श्रृंगार रस
इसका स्थायी भाव रति है। श्रंगार का आधार प्रेम-भाव है। इसमें नारी-पुरुष के अनुराग का वर्णन आता है। इसमें संयोग एवं वियोग के कारण दो भेद होते हैं 1. संयोग श्रृंगार 2. वियोग श्रृंगार
(क) संयोग रस
जहाँ नायक-नायिका के मिलन, वार्तालाप, स्पर्श आदि का वर्णन हो वहां संयोग श्रृंगार होता है।
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नाग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूल गयी, कर रही पल टारत नाहीं।
स्थायी भाव – रति। आश्रय – सीता। आलम्बन – राम। उद्दीपन – राम का रूप। अनुभाव – रूप निहारना, सुधि भूल जाना। संचारी भाव – सुधि भूलना।
(ख) वियोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका के विछड़ने का वर्णन होता है वहाँ वियोग रस होता है।
उनका यह कुंज-कुटीर, वहीं झरना उडू, अंशु अबीर जहाँ,
अलि कोकिल, कीर-शिखी सब हैं सुन चाकत की रहि पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समान वही, तब भी सब आज अनाथ यहाँ,
सखि, जा पहुंचे सुधि-संघ वही, यह अन्ध सुगन्ध समीर वहाँ।
स्थायी भाव – रति। आश्रय – यासोधरा। आलम्बन – सिद्धार्थ। उद्दीपन – कुंजी कुटीर,किरणें कोकिला, भौरों, पपीहे की ध्वनि। अनुभाव – विषाद भरे स्वर में कथन। संचारी भाव – स्मृति, मोह, विषाद, धृति।
2. हास्य रस
विचित्र वेश-भूसा, विकृति आकर, चेष्ठा आदि कारण जाग्रत हास स्थायीभाव विभावादी से पुष्ट होकर हास्य रस में परिणत होता है। सह्रदय के हृदय में स्थित हास्य नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह हास्य रस कहलाता है। जैसे –
इस दौड़-धूप में क्या रखा आराम करो, आराम करो।
आराम जिन्दगी की कुंजी इसमें न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में राम छुपा, जो भवबंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो बिरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
यहाँ हास स्थायीभाव, हास्य पात्र आलम्बन, व्यांगोक्ति उद्दीपन विभाव, खिलखिलाना अनुभाव तथा हर्ष, चपलता निर्लज्जता संचारी भाव हैं।
3. करुण रस
जब किसी प्रिय व्यक्ति या वस्तु विनाश या नष्ट होने की आशंका से जागे शोक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह करुण रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
देखि सुदामा की दीन दशा, करुना करिके करूणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोए।।
स्थायी भाव – शोक। आश्रय – करूणानिधि। आलम्बन – सिद्धार्थ। उद्दीपन – दयनीय दशा करुण विलाप। अनुभाव – अश्रु प्रलाप। संचारी भाव – रोना, दुखी होना,।
4. वीर रस
सह्रदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थायीभाव का जब विभाव, अनुभाव, और संचारी भाव से संयोग हो जाता है, तो वह वीर रस का रूप ग्रहण कर लेता है। ‘वीर रस’ में वीरता, बलिदान, राष्ट्रीयता जैसे सद्गुणों का संचार होता है। दान, दया, धर्म, एवं वीरता के भाव वीर रस की विशेषताएं हैं। उदाहरण-
देखि पवन सुत कटक बिशाला। क्रोधवन्तु जनु धायउ काला।
महा सैल इक तुरत उखारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।
स्थायी भाव – उत्साह। आश्रय – हनुमान। आलम्बन – मेघनाद। उद्दीपन – दकटक की दशा। अनुभाव – महान शैल को उखाड़ और फेंकना। संचारी भाव – स्वप्न की चिंता, शत्रु पर क्रोध, उग्रता तथा चपलता।
5. रौद्र रस
जब किसी दुष्ट के अत्याचारों, अपने अपमान के कारण जाग्रत क्रोध स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव, और संचारी भाव से संयोग हो जाता है, तो वहाँ रौद्र रस उत्पन्नहोता है।
श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूल कर करतल-युगल मलने लगे।।
संसार देखे अब हमारे, शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गए उठकर खड़े।।
उस काल मरे क्रोध के तन कांपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।।
स्थायी भाव – क्रोध। आश्रय – अर्जुन। आलम्बन – शत्रु। उद्दीपन – श्रीकृष्ण के वचन। अनुभाव – क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर कांपना। संचारी भाव – आवेग, चपलता, श्रम, उग्रता आदि।
6. भयानक रस
किसी भयंकर व्यक्ति या वास्तु के कारण जाग्रत भय स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह भयानक रस का रूप ग्रहण कर लेता है। उदाहरण-
नभ से झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपति तन व्याकुल नयन लावक हिल्यो रंच।।
स्थायी भाव -भय। आश्रय – लावा पंछी। आलम्बन – बाज। उद्दीपन – बाज का झपटना। अनुभाव – शरीर का कंपना, नेत्रों की व्याकुलता । संचारी भाव – दैन्य, विषाद, कांपना अपने स्थान से रंचमात्र न हिलना आदि।
7. वीभत्स रस
घ्रणापूर्ण चीजों को देखने या अनुभव करने के कारण जाग्रत जुगुप्सा (घ्रणा) स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वहाँ वीभात्स्य रस उत्पन्न होता है। उदाहरण-
सिर पर बैठयो काग, आँखी दोउ खात निकारत।
खीचत जीभाहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत।।
बहु चील्य नोच लै जात बढौ सब कौ हियौ।
मनु बृह्म भोज जिजमान कोऊ आज भिखारिन कहँ दियो।।
स्थायी भाव -जुगुप्सा (घ्रणा)। आलम्बन – श्मशान का द्रश्य। उद्दीपन – अंतड़ी की माला पहनना, चर्बी शरीर पर पोतना, नर-मुंडों को शरीर पर पोतना, धड़ पर बैठकर कलेजा फाड़कर निकलना उद्दीपन विभाव है। संचारी भाव – निर्वेद ग्लानि, दीनता से संचारी भाव है।
8. अद्भुत रस
किसी असाधारण या अलौकिक वास्तु को देखने में जाग्रत विस्मय स्थायी भाव विभावादी के संयोग से अद्भुत रस में परिणत होता है। उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भई गदगद वचन, विकसित दृग पुलकित।।
स्थायी भाव -विस्मय। आश्रय – माता यशोदा। आलम्बन – श्रीकृष्ण का मुख। उद्दीपन – मुख में भावों का दिखना। अनुभाव – नेत्र विकाश, गदगद स्वर, रोमांच, बुद्धि का नष्ट हो जाना। संचारी भाव – त्रास और जड़ता, चेतना (मूर्च्छा की स्थिति) और नेत्र अचंचल होना।
9. शांत रस
इसका स्थायी भाव निर्वेद है। सांसारिक सुख तथा देह की क्षणभंगुरता का ज्ञान, संत समागन, शास्त्र चिंतन और योग आदि उसके विभाव हैं। सब प्राणियों पर दया, परमानंद की उपलब्धि से मग्नता और आप्तकाम होकर असंग रहना इसके अनुभाव हैं। मति, धृति, और हर्ष आदि इसके संचारी भाव हैं। उदाहरण-
मन रे ! परम हरि के चरण
सुभग सीतल कमल कोमल,
त्रिविध ज्वाला हरन।
स्थायी भाव– निर्वेद। आलम्बन– अनित्य संसार। आश्रय – भक्त हृदय। उद्दीपन – अनुराग, भोग, विषय, काम। अनुभाव– उन्हें छोड़ देने का कथन। संचारी भाव – धृति, मति, विमर्ष।
10. वात्सल्य रस
सह्रदय के मन में उत्पन्न प्रेम नामक स्थायी भाव से जब अनुभाव, विभाव और संचारी भाव मिलते हैं, तब वह वात्सल्य रस का रूप ग्रहण कर लेता है। उदाहरण-
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलराई, मल्हावै, जोई सोई कछु गावै।।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुलावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवत, तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहूँ पलक हरि मूँद लेत, कबहूँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन हेव कै रहि, करि-करि सैन बतावै।।
स्थायी भाव– वात्सल्य। आश्रय – यसोदा। उद्दीपन – कृष्ण को सुलाना पलक मूंदना। अनुभाव– यसोदा की क्रियाएँ। संचारी भाव – शंका, हर्ष, आदि।