आईए जानें परोपकार से क्या तात्पर्य है? सामाजिक जीवन में परोपकार आवश्यक क्यों है? परोपकार पर निबंध लेखन 900 शब्दों में class 7वीं, class 8वीं के विद्यार्थियों के लिए। Essay on philosophy in Hindi.
प्रस्तावना – दुनिया में हर इंसान सुख एवं शान्तिपूर्वक जीवन जीना चाहता है। लेकिन मानव शरीर प्राप्त करके उसका जीना ही सार्थक है जो परोपकार की भावना अपने मन-मानस में गहराई से छिपाए हुए हो। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पावन ग्रन्थ ‘रामचरित मानस’ में इसी सत्य का उल्लेख निम्नवत् किया है देखिए
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अथमाई ॥”
इसका आशय यह है— सर्वोत्तम धर्म परोपकार है एवं सबसे बड़ा पाप दूसरों को पीड़ा पहुँचाना है। परहित के लिए खुद का बलिदान ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य एवं आदर्श है।
धर्म का व्यापक रूप-धर्म को यदि हम व्यापक रूप में परिभाषित करें तो यह कर्म की परिधि में ही समाहित है। इस प्रकार जो वर्जित कार्य हैं वे अधर्म ठहराए गए हैं। इसके विपरीत जो करने योग्य कर्म हैं उन्हें धर्म स्वीकारा गया है। अतः हमारा यह दृढ़ नियम होना चाहिए कि जहाँ तक हो सकेगा हम परहित भावना से निरन्तर जुड़े रहें।
परोपकार हेतु आवश्यक तथ्य
परोपकार के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को उदार मन होना चाहिए।
स्वार्थ का नामोनिशान भी मन में नहीं होना चाहिए। स्वार्थ एवं परोपकार दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। स्वार्थी इंसान कभी भी परोपकारी प्रमाणित नहीं हो सकता। आज समाज एक अंधी दौड़ में दौड़ रहा है। हमारे समस्त सम्बन्ध, रिश्ते नाते तथा अपनापन स्वार्थ की दीवार पर टिके हुए हैं। स्वार्थ में तनिक भी आँच आने पर हमारे सम्बन्धों की दीवार भरभरा कर गिर जाती है। आज मानव कर्म क्षेत्र में कूदने से पूर्व ही लाभ को अपनी दृष्टि में संजो लेता है। यदि लाभ मिलता है तो वह आगे बढ़ता है, इसके विपरीत हानि की आशंका मात्र से उसके कदम रुक जाते हैं।
परोपकार में जुटा रहना कोई खेल नहीं है। इसके लिए दधीचि के सदृश दृढ एवं स्वयं के बलिदान होने की क्षमता होनी चाहिए। वृत्रासुर का वध करने के हेतु उन्होंने वज्र बनाने के लिए स्वयं की अस्थियाँ दानस्वरूप प्रदत्त कर दीं। बाज के हमले से डरा हुआ कबूतर, शरण पाने की • कामना से राजा शिवि की गोद में आ बैठा। इसी बीच बाज भी वहाँ आ गया तथा राजा से कपोत की माँग दुहराने लगा। शिवि ने कबूतर के बराबर मांस अपने शरीर से काटकर बाज को दे दिया। यही बात मैथिलीशरण की निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है
“निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी । हम हो समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी ॥”
प्रकृति का उदात्त स्वरूप
प्रकृति निरन्तर परोपकार में निरत है। सरिताएँ सुबह से शाम तक अथाह जल-समूह को धारण करके निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं। उनका एकमात्र ध्येय धरती की प्यास को बुझाकर दूसरों का हित करना है। वृक्ष रात-दिन, आंधी तूफान तथा झंझावाती की मार सहकर भी अपने स्थान पर अडिग खड़े रहते हैं। उनकी यह इच्छा रहती है कि हारे-थके राहगीर आकर उनकी छाया में घड़ी भर विश्राम तथा शान्ति का अनुभव कर सकें। भूख से व्याकुल होने पर मधुर फलों का रसास्वादन भी करें।
मानव एवं पशु में भेद
पशु भी हमारी तरह अपने दैनिक क्रिया-कलापों में जुटे रहते हैं। दोनों के मध्य भेद इस आधार पर किया जा सकता है कि मानव के मन-मानस में परोपकार की। भावना विद्यमान रहती है, वहीं पशु इस भावना से कोसों दूर होते हैं। पशुओं के सारे काम स्वयं के हित के लिए होते हैं। गाय अथवा कुत्ते की सन्तान जरा से भोजन के लिए आपस में लड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। उनके अन्त में मात्र अपना स्वार्थ ही समाया रहता है। यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि मानव भी पशु की तरह जंगली तथा असभ्य व्यवहार करने लगे तो समाज का कितना अहित होगा, यह सोचकर ही मन प्रकम्पित हो जाता है।
भारतीय संस्कृति का आदर्श
भारतीय संस्कृति के मूल में मानव कल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। इस धरती पर समस्त कार्य स्वयं को संकुचित भावना से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव समाज की भलाई के लिए सम्पादित किए जाते हैं। हमारा लक्ष्य निम्नवत् अवलोकनीय है
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ॥”
अर्थात् सभी सुखी हों, सब निरोग हो, कोई भी दुःख का भागी न हो।
इस प्रकार के उच्चादर्श हमारे देश में सदैव से हो पल्लवित एवं साकार होते रहे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य मानव जीवन का उद्देश्य मात्र भोग एवं खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ तक ही सीमित नहीं है। जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का सुमिरन तथा भवन करना परमावश्यक है।
कष्ट सहन करने की क्षमता
परोपकारी मनुष्य में कष्ट सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। जो मनुष्य जरा-सी तकलीफ में कराहने लगता है तथा जीवन को बोझ समझ बैठता है। भला वह परोपकार की डगर पर किस प्रकार कदम बढ़ा सकता है ? उसे वृक्षों की भाँति सर्वस्व बलिदान करने के लिए सर्वथा उद्यत रहना चाहिए। देखिए वृक्षों की त्याग एवं बलिदान की भावना
“तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहि न पानि । कह रहीम परकाज हित सम्पत्ति संवय सुजान।”
परोपकार के अनेक रूप
परोपकार का क्षेत्र अति व्यापक है। किसी भी क्षेत्र में इस भावना का प्रदर्शन किया जा सकता है। पड़ौस में रुग्ण बीमार व्यक्ति को चिकित्सालय पहुंचाना, भटके हुए राहगीर को राह बतलाना, अंधे तथा लाचार मानव की सहायता करना, निर्धन को आर्थिक सहायता देना, विकलांग को सहारा देना तथा गिरते हुए को उठाना आदि अनेक ऐसे कार्य है जिनको सम्पादित करके मानव आत्मिक सुख तथा शान्ति का अनुभव कर सकता है।
उपसंहार
विश्व के सभी धर्मों के अन्तर्गत परोपकार की महिमा को उजागर किया गया। है। धर्म के समस्त गुण परोपकार को परिधि में समाहित हैं। परोपकार करने के लिए असीम धैर्य, ज्याग, तपस्या तथा बलिदान को परमावश्यकता है। भारत तो दया तथा परहिताय भावना का प्राचीन काल से ही प्रबल पक्षधर रहा है। अतः आइए हम सब भी इस पुनीत भाव को हृदय में धारण करके मानव की सेवा तथा भलाई का व्रत लें तभी सच्चे सुख एवं शान्ति की अनुभूति सम्भव है।
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