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दानवीर कर्ण का सम्पूर्ण जीवन परिचय

कर्ण (Karna) – कर्ण महाभारत के महान योद्धाओं में से एक थे। कर्ण एक महान योद्धा होने के साथ-साथ आदर्श दानवीर भी थे, उन्होंने दान मांगने की इच्छा से आए हुए किसी भी याचक निराश नहीं किया। अपने इसी दानधर्म का पालन करते हुए उन्होंने इंद्र को अपने कर्ण और कुंडल दान कर दिए थे जो उनके पिता सूर्यदेव द्वारा उन्हे जन्म से ही प्राप्त थे। कर्ण का सम्पूर्ण जीवन त्याग और बलिदान पर आधारित है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की कहानी बहुत मार्मिक है। कर्ण को वासुसेन,दानवीर कर्ण, राधेय, सूर्यपुत्र कर्ण, सूतपुत्र, अंगराज कर्ण आदि अन्य नाम से भी जाना जाता है। चलिए जानते हैं दानवीर कर्ण का सम्पूर्ण जीवन परिचय।

दानवीर कर्ण का सम्पूर्ण जीवन परिचय
नाम कर्ण 
मातामहारानी कुंती
पितासूर्यदेव
पत्निवृषाली और सुप्रिया
लालन-पालनराधा, अधिरत
संतानवृषसेन , चित्रसेन , सत्यसेन , सुशेन , द्विपाल , शत्रुंजय , प्रसेन , वनसेन और वृषकेतु
भाई-बहनयुधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन ,नकुल , सहदेव , सूर्यपुत्र शनि , सूर्यपुत्र यमराज , राधा पुत्र शोण

कर्ण का जन्म

एक बार महर्षि दुर्वासा ऋषि कुंती के पिता के घर में पधारे। उस समय कुंती कुंवारी थीं। वह दुर्वासा ऋषि की पूरी लगन से सेवा कर रही थीं। कुंती की सेवा भाव से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उन्हे पांच देवताओं के मंत्र वरदान स्वरूप दिए और कहा तुम तुम जिस भी देवता का स्मरण करोगी तुम्हें उनके जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा। एक दिन उत्सुकतावश कुंती ने कुंवारे में ही मंत्र का परिक्षण करने हेतु सूर्यदेव का स्मरण किया और सूर्यदेव वहां प्रकट हो गए। अचानक सूर्यदेव को अपने सम्मुख देखकर कुंती घबरा गई।

तब सूर्यदेव ने अपना परिचय देते हुए कहा डरो मत पुत्री मैं सूर्य हूं दुर्वासा ऋषि के मंत्र के प्रभाव से प्रकट हुआ हूं। तुमने मेरा स्मरण किया है इसलिए तुम्हें मेरे जैैसे पुत्र प्राप्त होगा। पुत्र के जन्म के पश्चात तुम फिर से कुंवारी अवस्था में आ जाओगी इतना कहकर सूर्यदेव अंतर्ध्यान हो गए। समय आने के उपरांत जब कुंती ने पुत्र को जन्म दिया तब लोकलाज के डर के कारण बच्चे को नदी में बहा दिया।

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लालन-पालन

सुबह जब अधिरथ (अधिरथ जो धृतराष्ट्र का सारथी था) की पत्नि राधा ने बच्चे को पानी में बहते हुए देखा तो वह तुरंत इसकी सूचना अपने पती को दी, उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी इसलिए दोनों ने निर्णय किया कि हम इसे अपनी संतान बताकर इनका पालन पोषण करेंगे और इस बात को गुप्त रखेंगे कि यह हमें नदी में मिला था। उन्होंने उसका नाम वासुसेन रखा। राधा के द्वारा उनका लालन-पालन होने के कारण ही कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है।

शिक्षा तथा शस्त्र विद्या

कर्ण को बाल्यकाल से ही शस्त्र चलाने और युद्धकला में रुचि थी इसलिए उसके जिद करने पर उसके पिता अधिरथ उसे गुरु द्रोणाचार्य के पास ले गए जहां द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों को शिक्षा तथा शस्त्र विद्या का अभ्यास कराते थे। अधिरथ ने द्रण से कर्ण को शस्त्र विद्या देने का आग्रह किया परंतु द्रोणाचार्य ने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिए क्योंकि वे केवल कुरु राजकुमारों को ही शिक्षा देते थे।

द्रोणाचार्य के मना कर देने पर कर्ण ने परशुराम से शिक्षा प्राप्त करने का निश्चय किया जो केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे इसलिए कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से युद्धकला और धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त किया।

कर्ण को परशुराम का श्राप

बात उस समय की है जब कर्ण की शिक्षा अंतिम पड़ाव पर थी। एक दिन परशुराम कर्ण की गोद पर सर रखकर विश्राम कर रहे थे। तभी एक कीड़ा कर्ण की जांघ पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग न हो इसलिए कर्ण उस पीड़ा को चुपचाप सहता रहा परंतु जैसे ही परशुराम निंद्रा से जागे कर्ण ने उस कीड़े को पैरों से कुचल कर मार डाला।

परशुराम को यह दृश्य देखकर क्रोध आ गया और उन्होंने कर्ण से कहा एक क्षत्रिय ही इतनी पीड़ा सहन कर सकता और कोई ब्राह्मण इतनी निर्दयता से किसी जीव की हत्या नहीं कर सकता तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। तुमने झूठ बोलकर मुझसे विद्या प्राप्त किया है इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि जब भी तुम्हें इस विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन यह तुम्हारे किसी काम नहीं आएगी तुम अपनी सारी विद्या भूल जाओगे।

कर्ण स्वयं इस बात को नहीं जानता था कि उनका वंश क्या है। उसने गुरु से क्षमा याचना की। परशुराम को अपने शिष्य के प्रति कठोर आचरण पर ग्लानि हुई किन्तु वे चाहकर भी दिया हुआ श्राप वापस नहीं ले सकते थे इसलिए उन्होंने अपना विजयधनुष कर्ण को प्रदान किया।

कर्ण दुर्योधन से मित्रता तथा अंगराज

सभी कौरव-पाण्डव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शस्त्र विद्या तथा युद्ध कौशल के परिक्षण करने हेतु रंगभूमि का आयोजन किया। रंगभूमि में अन्य देशों के राजकुमारों ने भी भाग लिया था जिसमेें अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर चुना गया। तभी वहां कर्ण आ जाता है और अर्जुन के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का विरोध करते हुए उसे द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारता है।

तब कृपाचार्य ने द्वन्द्वयुद्ध की अनुमति देने से पहले कर्ण से प्रश्न किया कि तुम किस देश के राजा अथवा राजकुमार हो। क्योंकि द्वन्द्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल कोई राजकुमार अथवा राजा ही अर्जुन को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकार सकता था। तब दुर्योधन कृपाचार्य की बात का विरोध किया कि यह एक वीर का अपमान है। यदि द्वन्द्वयुद्ध करने के लिए इसका राजा होना आवश्यक है तो मैं इसे अपना अंगदेश प्रदान करता हूं। दुर्योधन ने रंगभूमि में ही कर्ण का राज्याभिषेक किया इसलिए कर्ण को अंगराज के नाम से भी जाना जाता है।

श्रीकृष्ण और कर्ण

जब कौरवों ने अंगराज कर्ण को कौरव सेना का सेनापति बनाया उसी रात श्रीकृष्ण कर्ण से मिलने उसके शिविर पर गए थे। कर्ण ने आश्चर्य से कृष्ण के आने का कारण पूछा तो कृष्ण ने उसे धर्म और अधर्म का अंतर समझाते हुए धर्म की ओर से युद्ध करने को कहा अर्थात उन्होंने कर्ण को पाण्डवों की ओर से युद्ध करने का निमंत्रण दिया। अंगराज ने मित्रता को अपना धर्म बताकर कृष्ण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। तब श्री कृष्ण ने कर्ण को वो रहस्य बताया जिस रहस्य को जानने के लिए कर्ण बचपन से व्याकुल था। श्री कृष्ण ने उसे बताया कि तुम जेष्ठ पाण्डव हो तथा पांचो पाण्डव तुम्हारे छोटे भाई हैं और महारानी कुंती ही तुम्हारी माता हैं। 

कुन्ती और कर्ण

युद्ध आरंभ होने से पहले प्रातः काल कर्ण स्नान करके सूर्यदेव को प्रणाम कर किसी याचक के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी वहां महारानी कुंती कर्ण से मिलने आई। कर्ण ने महारानी कुंती से प्रश्न किया कि उन्होंने उसे जन्म देते ही नदी में क्यों बहा दिया। माता कुंती ने उसे बताया कि वह ऐसा करने पर विवश थी जब मैंने तुम्हें जन्म दिया था उस समय में विवाहित नहीं थी। ऋषि दुर्वासा द्वारा मिले वरदान के प्रभाव को देखने के लिए मैंने नादानी में एक दिन सूर्यदेव का स्मरण किया था जिनके आशिर्वाद से तुम्हारा जन्म हुआ था। लोक-लाज के डर के कारण ही मैंने तुम्हें नही में बहाया था। 

जब कर्ण ने माता कुंती से पूछा कि आप इस समय मेरे पास क्यों आई हैं। कुंती ने कहा मैं तुम्हारे पास याचक के रूप में आई हूँ मैं अपने पांचो पुत्रों का जीवन तुझसे दान स्वरूप मांगती हूँ। कर्ण माता को वचन देता है, कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पाण्डव का वध नहीं करेगा, युद्ध में अर्जुन जीवित रहे या कर्ण तुम्हारे पांच पुत्र ही रहेंगे। 

कर्ण की मृत्यु

महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन अर्जुन और कर्ण के बीच भीषण युद्ध चल रहा था। दोनों ओर से शस्त्र चलाये जा रहे थे उसी दौरान कर्ण के रथ का पहिया धरती पर फंस जाता है। कर्ण पहिया निकालने के लिए रथ से नीचे उतरता है और अपना धनुष रथ पर रखकर पहिया निकालने का प्रयत्न करता है उसी समय अर्जुन निहत्थे कर्ण पर द‌िव्यास्‍त्र चला दिया और उसकी मृत्यु हो गयी।

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